“श्रीविष्णुकृत भगवती आर्या स्तुति”
श्रीविष्णु द्वारा रचित भगवती आर्या स्तुति: देवी भगवती की स्तुति में लिखा गया पवित्र ग्रंथ, जो भक्तों को शक्ति और आशीर्वाद प्रदान करता है।
मैं तीनों लोकों की अधीष्वरी नारायणीदेवी को नमस्कार करता हूँ । देवि! तुम्हीं सिद्धि, धृति, कीर्ति, श्री, विद्या, संनति, मति, संध्या, रात्रि, प्रभा, निद्रा और कालरात्रि हो।
आर्या, कात्यायनी, देवी, कौषिकी, ब्रह्मचारिणी, कुमारकार्तिकेय की जननी, उग्रचारिणी तथा महान्बल से सम्पन्न हो। जया, विजया, पुश्टि, तुश्टि, क्षमा, दया, यम की ज्येश्ठ बहिन तथा नीले रंग की रेशमी साड़ी पहनने वाली हो।तुम्हारे बहुत से रूप हैं, इसलिये तुम बहुरूपा हो। विकराल रूप धारण करने के कारण तुम विरूपा हो। अनेक प्रकार की विधियों को आचरण में लाने वाली हो।
तीन होने के कारण तुम्हारे नेत्र विरूप प्रतीत होते हैं, इसलिये तुम विरूपाक्षी हो। तुम्हारे नेत्र बड़े बड़े हैं, इस कारण विशालाक्षीहो।तुम सदा अपने भक्तों की रक्षा करने वाली हो। महादेवी! पर्वतों के घोर शिखरों पर, नदियों में, गुफाओं में तथा वनों और उपवनों में भी तुम्हारा निवास है।
माता भगवती की स्तुति
शबरों, बर्बरों और पुलिन्दों ने भी तुम्हारा अच्छी तरह से पूजन किया है। तुम मोर पंख की ध्वजा से सुशोभित हो और क्रमषः सभी लोकों में विचरती रहती हो। मुर्गे, बकरे, भेड़, सिंह तथा व्याघ्र आदि पषुपक्षी तुम्हें सदा घेरे रहते हैं। तुम्हारे पास घण्टा की ध्वनि अधिक होती है। तुम विंध्यवासिनी नाम से विख्यात हो।
देवि! तुम त्रिशूल और पटि्टश धारण करने वाली हो। तुम्हारी पताका पर सूर्य और चन्द्र के चिह्न है। तुम प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की नवमी और शुक्लपक्ष की एकादषी हो।
बलदेवजी की बहिन हो। रात्रि तुम्हारा स्वरूप है। कलह तुम्हें प्रिय लगता है। तुम सम्पूर्ण भूतों का आवासस्थान, मृत्यु तथा परम गति हो। तुम नन्दगोपकी पुत्री, देवताओं को विजय दिलाने वाली, चीर वस्त्रधारणी, सुवासिनी, रौद्री, संध्याकाल में विचरने वाली और रात्रि हो।
तुम्हारे केश बिखरे हुए हैं। तुम्हीं प्राणियों की मृत्यु हो। मधु से युक्त तथा मांस से रहित बलि तुम्हें प्रिय है। तुम्हीं लक्ष्मी हो तथा तुम्हीं दानवों का वध करने के लिये अलक्ष्मी बन जाती हो।
तुम्हीं सावित्री, देवमाता अदिति तथा समस्त भूतों की जननी हो। कन्याओं का ब्रह्मचर्य तुम्हीं हो और विवाहिता युवतियों का सौभाग्य भी तुम ही हो।
तुम्हीं यज्ञों की अंतर्वेदी तथा जों की कि दक्षिण हो। किसानों की सीता (हल जोतने से उभरी हुई रेखा) तथा समस्त प्राणियों को धारण करने वाली धरणी भी तुम्हीं हो। नौका या जहाज से यात्रा करने वाले व्यापारियों को प्राप्त होने वाली सिद्धि भी तुम्हीं हो।
तुम्हीं समुद्र की तटभूमि, यक्षों की प्रथम यक्षी (कुबेर की माता) तथा नागों की जननी सुरसा हो। देवि! तुम ब्रह्मवादिनी दीक्षा तथा परम शोभा हो।
ज्योतिर्मय गृहों एवं तारकाओं की प्रभा हो तथा नक्षत्रों में रोहिणी हो। राजद्वारों तीर्थ तथा नदियों के संगमों में तुम पूर्ण लक्ष्मी रूप से स्थित हो। तुम्हीं चन्द्रमा मैं पूर्णिमारूप से विराजमान होती हो तथा तुम्हीं कृत्तिवासा हो।
तुम महर्षि वाल्मीकि मैं सरस्वती रूप से, श्री कृष्णद्वैपायन व्यास में स्मृतिरूप से तथा ऋषि मिनियों में धर्म बुद्धिरूप से स्थित हो। देवताओं में सत्यसंकल्पात्मक चित्तवृत्ति भी तुम्हीं हो।
तुम समस्त भूतों में सुरादेवी हो और अपने कर्मों द्वारा सदा प्रशंसित होती हो। इन्द्र की मनोहर दृश्टि भी तुम्हीं हो, सहस्रों नेत्रों से युक्त होने के कारण सहस्रनयना नाम से तुम्हारी ख्याति है।
तुम तपस्वी मुनियों की देवी हो। अग्निहोत्र करने वाले ब्राह्मणों की आरती हो। समस्त समस्त प्राणियों की क्षुधा तथा देवताओं की सदा बनी रहने वाली तृप्ति हो। तुम ही स्वाहा, तृप्ति, धृति और मेघा हो। वसुओं की वसुमती भी तुम्हीं हो। तुम्हीं मनुष्यों की आशा तथा कृतकृत्य पुरुषों की पुष्टि हो।
तुम्हीं दिशा, विदिशा ,अग्नि शिखा, प्रभा , शकुनी, पूतना तथा अत्यन्त दारुण रेवती हो। समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम्हीं ओंकार एवं वशट्कार हो। ऋषि तुम्हें नारियों में पुराण प्रसिद्ध पार्वतीदेवी के रूप में जानते हैं।
तुम साध्वी स्त्रियों में अरुधंती हो, जैसा कि प्रजापति का कथन है। तुम अपने पर्यायवाची दिव्य नामों द्वारा इन्द्राणी के रूप में विख्यात हो।
तुमने इस समस्त चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है। समस्त संग्रामों में, आग से जलते हुए घरों में, नदी के तटों पर, चोरों और लुटेरों के दलों में, दुर्गम स्थान में, भय के सभी अवसरों में, परदेषमें, राजा के द्वारा बंधन प्राप्त होने पर, षत्रुओं का मर्दन करते समय एवं सभी प्राणसंकट की घड़ियों में तुम्हीं सबकी रक्षा करने वाली हो।
देवि! मेरा हृदय तुममें लगा हुआ है। मेरा चित्त और मन भी तुम्हारे चिंतन एवं मनन में तत्पर है। तुम समस्त पापों से मेरी रक्षा करो। तुम्हें मुझ पर कृपा करनी चाहिये।
जो मनुश्य मेरे (विष्णु) द्वारा किये गये तथा व्यास जी के द्वारा पद्ध में आबद्ध किये हुए इस सुन्दर दिव्य स्तोत्र का प्रातःकाल उठकर षुद्धभाव से संयतचित्त होकर
पाठ करता है, उसे तुम तीन ही महीनों में मनोवांछित फल प्रदान कर देती हो तथा छः महीनों तक लगातार पाठ करते रहने से मनुष्य को कोई विशिष्ट वर देती हो।
तीन महीनों तक पूजित होने पर तुम उपासक को दिव्य दृश्टि प्रदान करती हो और
एक वर्ष तक आराधना करने पर उसे उसकी इच्छा के अनुसार सिद्धि प्रदान करती हो। श्री कृष्णाद्वैपायन व्यासजी ने जैसा बताया है, उसके अनुसार तुम्हीं सत्य एवं दिव्य ब्रह्म हो। महा भागे! तुम पूजित होने पर मनुष्यों के बंधन, भयानक वध, पुत्र और धन के नाष तथ् ा रोग और मृत्यु का भय दूर कर दोगी नाश तथा इच्छानुसार
रूप धारण करके उपासकों के लिये वरदायिनी होओगी। इतना ही नहीं, तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही सम्पूर्ण जगत् का उपभोग करोगी। मैं भी वज्र मैं गौओं के बीच में रहकर गोप के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा। मैं अपनी पुष्टि के लिये कंस के गौओं की चरवाही करुंगा। योगनिद्रा को ऐसा आदेष देकर भगवान् विष्णु अंतरधियानं हो गये। उस समय उस देवी ने भी उन्हें नमस्कार करके
‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा के पालन करने का निश्चित विचार कर लिया। जो मनुश्य बारंबार इस स्तोत्र का पाठ अथवा श्रवण करता है, वह अपने सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
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