कांवड़ यात्रा की शुरुआत कैसे हुई, यह सवाल हर साल सावन के महीने में उठता है। जब शिवभक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लेने निकलते हैं और फिर उसी जल से भगवान शिव का अभिषेक करते हैं। आस्था और धर्म से जुड़ा यह पर्व पूरे भारत में बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस यात्रा की शुरुआत कहां और कैसे हुई थी? आइए जानते हैं इसके पीछे की पौराणिक कथाएं।
क्या है कांवड़ यात्रा?
सावन का महीना भगवान शिव का सबसे प्रिय मास माना जाता है। इसकी शुरुआत 11 जुलाई से हुई है और यह 9 अगस्त को समाप्त होगा। इस पावन समय में श्रद्धालु ‘बम बम भोले’ और ‘हर हर महादेव’ के जयघोष के साथ यात्रा पर निकलते हैं। कांवड़ यात्रा उनके लिए सिर्फ एक धार्मिक यात्रा नहीं है। यह एक कठोर साधना और आत्मसमर्पण का प्रतीक मानी जाती है।
कांवड़ यात्रा की शुरुआत कैसे हुई?
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कांवड़ यात्रा की शुरुआत को लेकर कई पौराणिक कथाएं और मान्यताएं प्रचलित हैं। आइए जानते हैं इन कथाओं को:
1. परशुराम की कथा
एक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव के परम भक्त परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर शिवजी का अभिषेक किया था। कई लोग इस घटना को कांवड़ यात्रा की पहली शुरुआत मानते हैं।
2. भगवान राम की कांवड़ यात्रा
एक अन्य कथा के अनुसार, भगवान श्रीराम ने भी कांवड़ लेकर गंगाजल देवघर स्थित शिवलिंग पर चढ़ाया था। इस कारण उन्हें भी पहला कांवड़िया कहा जाता है।
3. श्रवण कुमार की सेवा
श्रवण कुमार की कथा भी कांवड़ यात्रा से जुड़ी हुई मानी जाती है। उन्होंने अपने वृद्ध माता-पिता को कांवड़ में बिठाकर हरिद्वार की यात्रा कराई थी। इसे सेवा और समर्पण का प्रतीक माना जाता है, जो आज भी कांवड़ यात्रा की आत्मा में समाहित है।
4. रावण और समुद्र मंथन की कथा
एक अन्य मान्यता में रावण का नाम भी आता है। कहा जाता है कि रावण ने कैलाश पर्वत से शिवलिंग लेकर लंका ले जाने की कोशिश की थी और उसने भी शिवलिंग पर गंगाजल चढ़ाया था। वहीं कुछ कथाएं समुद्र मंथन के बाद निकले अमृत और शिव के विषपान से भी इस परंपरा को जोड़ती हैं।
कांवड़ यात्रा की धार्मिक मान्यता
कांवड़ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह संपूर्ण भक्ति और तपस्या का मार्ग है। ऐसा माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति श्रद्धा, नियम और संकल्प के साथ यह यात्रा करता है, तो उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। कांवड़ को हमेशा कंधे पर उठाकर चलने की परंपरा सनातन काल से चली आ रही है। इसे सेवा, समर्पण और अहंकार के त्याग का प्रतीक माना जाता है।
निष्कर्ष
कांवड़ यात्रा की शुरुआत से जुड़ी कथाएं चाहे परशुराम की हों, भगवान राम की, श्रवण कुमार की या रावण की—इन सभी का सार यही है कि यह यात्रा आस्था, सेवा और समर्पण का परिचायक है। यह वह मार्ग है, जहां शरीर की थकान भक्ति की शक्ति से हार जाती है और साधक शिव के चरणों में खुद को समर्पित कर देता है।